वह पावस का प्रथम दिवस जब,
पहली बूँद धरा पर आई।
अंकुर फूट पड़ा धरती से,
नव-जीवन की ले अंगड़ाई।
धरती के सूखे अधरों पर,
गिरी बूँद अमृत सी आकर।
वसुंधरा की रोमावलि-सी,
हरी दूब पुलकी-मुसकाई।
पहली बूँद धरा पर आई।।
आसमान में उड़ता सागर,
लगा बिजलियों के स्वर्णिम पर।
बजा नगाड़े जगा रहे हैं,
बादल धरती की तरुणाई।
पहली बूँद धरा पर आई।।
नीले नयनों-सा यह अंबर,
काली पुतली-से ये जलधर।
करुणा-विगलित अश्रु बहाकर,
धरती की चिर-प्यास बुझाई।
बूढ़ी धरती शस्य-श्यामला
बनने को फिर से ललचाई।
पहली बूँद धरा पर आई।।
- गोपालकृष्ण कौल
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