Sunday, 1 June 2025

गोल (Goal) by मेजर ध्यानचंद (Major Dhyanchand)

खेल के मैदान में धक्का-मुक्की और नोंक-झोंक की घटनाएँ होती रहती हैं। खेल में तो यह सब चलता ही है। जिन दिनों हम खेला करते थे, उन दिनों भी यह सब चलता था। 

    सन 1933 की बात है। उन दिनों में, मैं पंजाब रेजिमेंट की ओर से खेला करता था। एक दिन ‘पंजाब रेजिमेंट’ और ‘सैंपर्स एंड माइनर्स टीम’ के बीच मुकाबला हो रहा था। ‘माइनर्स टीम’ के खिलाड़ी मुझसे गेंद छीनने की कोशिश करते, लेकिन उनकी हर कोशिश बेकार जाती। इतने में एक खिलाड़ी ने गुस्से में आकर हॉकी स्टि‍क मेरे सिर पर दे मारी। मुझे मैदान से बाहर ले जाया गया। 

    थोड़ी देर बाद मैं पट्टी बाँधकर फिर मैदान में आ पहुँचा। आते ही मैंने उस खिलाड़ी की पीठ पर हाथ रखकर कहा, “तुम चिंता मत करो, इसका बदला मैं जरूर लूँगा।” मेरे इतना कहते ही वह खिलाड़ी घबरा गया। अब हर समय मुझे ही देखता रहता कि मैं कब उसके सिर पर हॉकी स्टि‍क मारने वाला हूँ। मैंने एक के बाद एक झटपट छह गोल कर दिए। खेल खत्म होने के बाद मैंने फिर उस खिलाड़ी की पीठ थपथपाई और कहा, “दोस्त, खेल में इतना गुस्सा अच्छा नहीं। मैंने तो अपना बदला ले ही लिया है। अगर तुम मुझे हॉकी नहीं मारते तो शायद मैं तुम्हें दो ही गोल से हराता।” वह खिलाड़ी सचमुच बडा शर्मिंदा हुआ। तो देखा आपने मेरा बदला लेने का ढंग? सच मानो, बुरा काम करने वाला आदमी हर समय इस बात से डरता रहता है कि उसके साथ भी बुराई की जाएगी। 

    आज मैं जहाँ भी जाता हूँ बच्चे व बूढ़ेू मुझे घेर लेते हैं और मुझसे मेरी सफलता का राज जानना चाहते हैं। मेरे पास सफलता का कोई गुरु-मंत्र तो है नहीं। हर किसी से यही कहता कि लगन, साधना और खेल भावना ही सफलता के सबसे बड़े मंत्र हैं। 

    मेरा जन्म सन 1904 में प्रयाग में एक साधारण परिवार में हुआ। बाद में हम झाँसी आकर बस गए। 16 साल की उम्र में मैं ‘फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट’ में एक साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हो गया। मेरी रेजिमेंट का हॉकी खेल में काफी नाम था। पर खेल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय हमारी रेजिमेंट के सूबेदार मेजर तिवारी थे। वे बार-बार मुझे हॉकी खेलने के लिए कहते। हमारी छावनी में हॉकी खेलने का कोई निश्‍च‍ित समय नहीं था। सैनिक जब चाहे मैदान में पहुँच जाते और अभ्यास शुरू कर देते। उस समय तक मैं एक नौसिखिया खिलाड़ी था। 

    जैसे-जैसे मेरे खेल में निखार आता गया, वैसे-वैसे मुझे तरक्की भी मिलती गई। सन 1936 में बर्लिन ओलंपिक में मुझे कप्तान बनाया गया। उस समय मैं सेना में लांस नायक था। बर्लिन ओलंपिक में लोग मेरे हॉकी खेलने के ढंग से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे ‘हॉकी का जादूगर’ कहना शुरू कर दिया। इसका यह मतलब नहीं कि सारे गोल मैं ही करता था। मेरी तो हमेशा यह कोशिश रहती कि मैं गेंद को गोल के पास ले जाकर अपने किसी साथी खिलाड़ी को दे दूँ ताकि उसे गोल करने का श्रेय मिल जाए। अपनी इसी खेल भावना के कारण मैंने दुनिया के खेल प्रेमियों का दिल जीत लिया। बर्लिन ओलंपिक में हमें स्वर्ण पदक मिला। खेलते समय मैं हमेशा इस बात का ध्यान रखता था कि हार या जीत मेरी नहीं, बल्कि पूरे देश की है। 

— मेजर ध्यानचदं

Friday, 30 May 2025

हार की जीत (Haar Ki Jeet) by सुदर्शन (Sudarshan)

माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोडा देखकर आता था। भगवत भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोडा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोडा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे सुलतान कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रुपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मंदिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। "मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा", उन्हें ऐसी भ्रांति-सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, "ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।" जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता। 

    खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सलतान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। एक दिन वह दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?” 

    खड्गसिंह ने सिर झकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।” 

    “कहो, इधर कैसे आ गए?” 

    “सुलतान की चाह खींच लाई।” 

    “विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।” 

    “मैंने भी बड़ी प्रशसा सुनी है।” 

    “उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!” 

    “कहते हैं देखने में भी बहुत सुंदर है।” 

    “क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।” 

    “बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।” 

    बाबा भारती और खड्गसिंह दोनों अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमड से, खड्गसिंह ने घोड़ा देखा आश्‍च‍र्य से। उसने सैकड़ों घोड़े देखे थे, परं त ऐसा बाँका ु घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गजरा था। सोचने लगा, ‘भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड्गसिं ह के पास होना चाहिए था। इस साधुको ऐसी चीज़ों से क्या लाभ?’ कुछ देर तक आश्‍च‍र्य से चपचाप खडा रहा। इसके पश्‍च‍ात उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?” 

    बाबा भारती भी मनुष्य ही थे। अपनी चीज़ की प्रशसा दुसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय भी अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर लाए और उसकी पीठ पर हाथ फे रने लगे। एकाएक उचककर सवार हो गए, घोड़ा हवा से बातें करने लगा। उसकी चाल को देखकर खड्गसिं ह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहु बल था, आदमी थे और बेरहमी थी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूंगा।”  

    बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रतिक्षण खड्गसिं ह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। 

    संध्या का समय था। बाबा भारती सुलतान की पीठ पर सवार होकर घुमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे।

    सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सनते जाना।” 

    आवाज़ में करुणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्‍ट है?” 

    अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोडे पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।” 

    “वहाँ तुम्हारा कौन है?” 

    “दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।” 

    बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्‍च‍र्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड्गसिंह था। बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्‍च‍ात कुछ निश्‍च‍य करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।” 

    खड्गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।” “परंतु एक बात सुनते जाओ।”  

    खड्गसिं ह ठहर गया। 

    बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खडगसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ, इसे अस्वीकार न करना; नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।” 

    “बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल यह घोड़ा न दूँगा।” 

    “अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।” 

    खड्गसिंह का मुँह आश्च‍र्य से खुला रह गया। उसे लगा था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड्गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी, इसमें आपको क्या डर है?” 

    सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे किसी गरीब पर विश्‍वास न करेंगे। दुनिया से विश्‍वास उठ जाएगा।” यह कहते-कहते उन्होंने सुलतान की ओर से इस तरह मुँह मोुड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही न रहा हो। 

    बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड्गसिंह के कानों में उसी प्रकार गुँज रहे थे। सोचता था, ‘कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फुल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकुँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह खयाल था कि कहीं लोग गरीबों पर विश्‍वास करना न छोड़ दें।’

    रात के अँधेरे में खड्गसिंह बाबा भारती के मदिंर में पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मदिंर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड्गसिंह सुलतान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड्गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में पश्‍च‍ाताप के आँसू थे। 

    रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहरु आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्‍च‍ात, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन-भर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्‍च‍र्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने घोडे के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े पत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। और कहते थे, “अब कोई गरीबों की सहायता से मुँह न मोडेगा।” 

    थोड़ी देर के बाद जब वह अस्तबल से बाहर निकले तो उनकी आँखों से आँसु बहू रहे थे। ये आँसु उसी भूमि पर ठीक उसी जगह गिर रहे थे, जहाँ बाहर निकलने के बाद खड्ग‍सिंह खड़ा होकर रोया था। दोनों के आँसुओं का उस भूमि की मिट्टी पर परस्पर मेल हो गया। 

— सुदर्शन 

Sunday, 11 May 2025

पहली बूँद (Pehli Boond) by गोपालकृष्ण कौल (Gopal Krishna Kaul)

वह पावस का प्रथम दिवस जब,

पहली बूँद धरा पर आई।

अंकुर फूट पड़ा धरती से,

नव-जीवन की ले अंगड़ाई।


धरती के सूखे अधरों पर,

गिरी बूँद अमृत सी आकर।

वसुंधरा की रोमावलि-सी,

हरी दूब पुलकी-मुसकाई।

पहली बूँद धरा पर आई।।


आसमान में उड़ता सागर,

लगा बिजलियों के स्वर्णिम पर।

बजा नगाड़े जगा रहे हैं,

बादल धरती की तरुणाई।

पहली बूँद धरा पर आई।।


नीले नयनों-सा यह अंबर,

काली पुतली-से ये जलधर।

करुणा-विगलित अश्रु बहाकर,

धरती की चिर-प्यास बुझाई।

बूढ़ी धरती शस्य-श्यामला

बनने को फिर से ललचाई।

पहली बूँद धरा पर आई।।


- गोपालकृष्ण कौल

मातृभूमि (Matrubhoomi) by सोहनलाल द्विवेदी (Sohan Lal Dwivedi)

ऊंचा खड़ा हिमालय

आकाश चूमता है,

नीचे चरण तले झुक,

नित सिंधु झूमता है।


गंगा यमुन त्रिवेणी

नदियाँ लहर रही हैं,

जगमग छटा निराली,

पग पग छहर रही हैं।


वह पुण्य-भूमि मेरी,

वह स्वर्ण-भूमि मेरी।

वह जन्मभूमि मेरी,

वह मातृभूमि मेरी।


झरने अनेक झरते

जिसकी पहाड़ियों में,

चिड़ियाँ चहक रही हैं,

हो मस्त झाड़ियों में।


अमराइयाँ घनी हैं

कोयल पुकारती है,

बहती मलय पवन है,

तन-मन सँवारती है।


वह धर्मभूमि मेरी,

वह कर्मभूमि मेरी।

वह जन्मभूमि मेरी

वह मातृभूमि मेरी।


जन्मे जहाँ थे रघुपति,

जन्मी जहाँ थी सीता,

श्रीकृष्ण ने सुनाई,

वंशी पुनीत गीता।


गौतम ने जन्म लेकर,

जिसका सुयश बढ़ाया,

जग को दया सिखाई,

जग को दिया दिखाया।


वह युद्ध-भूमि मेरी,

वह बुद्ध-भूमि मेरी।

वह मातृभूमि मेरी,

वह जन्मभूमि मेरी।


-सोहनलाल द्विवेदी

गोल (Goal) by मेजर ध्यानचंद (Major Dhyanchand)

खेल के मैदान में धक्का-मुक्की और नोंक-झोंक की घटनाएँ होती रहती हैं। खेल में तो यह सब चलता ही है। जिन दिनों हम खेला करते थे, उन दिनों भी यह स...